15 अप्रैल 2011
इस्लामाबाद। पाकिस्तान में हिन्दू और सिख समुदाय के लोगों की स्थिति बेहद दयनीय है। वे हमेशा डर और आतंक के साये में जीते हैं। अन्य समुदायों के अल्पसंख्यकों की भी यही दशा है। इसका खुलासा खुद पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग (एचआरसीपी) ने किया है। अपनी रिपोर्ट में आयोग ने खासतौर पर वर्ष 2010 को अल्पसंख्यकों के लिए बेहद खराब बताया।
गुरुवार को जारी आयोग की रिपोर्ट के अनुसार ओराकजाय एजेंसी नामक इलाके में 102 सिख परिवारों में से करीब 25 प्रतिशत ने तालिबानियों के फरमान के बाद अपना घर छोड़ दिया। उन्हें तालिबान ने जजिया चुकाने या वह क्षेत्र छोड़ देने का फरमान सुनाया था। सैन्य कार्रवाई के बाद ही सिख अपने घरों में लौट पाए। इसी तरह सुरक्षा कारणों से 27 हिन्दू परिवारों को भारत में शरण लेनी पड़ी। एक पाकिस्तानी समाचार पत्र ने आयोग की रिपोर्ट के हवाले से शुक्रवार को लिखा कि अलग-अलग धर्म का अनुपालन करने के कारण जान गंवाने वालों के प्रति सरकार ने भी संवेदना नहीं जताई।
'वर्ष 2010 में मानवाधिकारों की स्थिति' नाम से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि धार्मिक विश्वासों को लेकर होने वालों हमलों के निशाने पर न केवल अल्पसंख्यक हैं, बल्कि विभिन्न पंथों के 418 मुस्लिम भी इसमें मारे गए। रिपोर्ट के अनुसार, "ये सभी इस बात के संकेत हैं कि आगे और भी बुरे हालात होने वाले हैं। चरमपंथियों की आवाज मुखर हो रही है, जबकि बढ़ती हिंसा और धमकियों के बीच मानवाधिकार तथा सहिष्णुता की आवाज अलग-थलग पड़ती जा रही है।"
एचआरसीपी ने पुलिस को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि वह अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले हमलों से उनकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रही है, बल्कि कई बार वह पीड़ितों को प्रताड़ित करने और गलत आरोपों को उलझाने का ही काम करती है। समाचार पत्र ने एचआरसीपी के अध्यक्ष मेहदी हसन के हवाले से लिखा है कि मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले अधिकतर सरकारी पदाधिकारी ही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल 64 लोगों के खिलाफ ईशनिंदा का आरोप लगाया गया, जिनमें से अधिकतर जेल में हैं। एक मुस्लिम और दो ईसाइयों की इस आरोप में पुलिस हिरासत में हत्या कर दी गई।
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